mamathanr                  एक दिवसीय राष्ट्रीय हिन्दी संगोष्ठी                     

दिनांक : 15.09.15

स्थल : सेंट फिलोमिना कालेज, पुतूर

 

विषय : भीष्म साहनी के 'कबिरा खड़ा बाज़ार में' में सामाजिक संघर्ष के तत्व

भूमिका :

हिन्दी साहित्य के बहु आयामी लेखकों में भीष्म साहनी का नाम शीर्षास्थ पर है । भीष्म साहनी हिन्दी जगत के ऐसे जानेमाने हस्ती है जिन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं पर अपना कलम चलाकर एक सफल साहित्यकार होने का प्रमाण देते हैं।बचपन से ही भीष्मजी को नाटकों में विशेष रूचि रही। इन्होंने स्वयं प्रादेशिक नाटक मांडली की स्थापना भी की थी। वे स्वयं अखिल भारतीय लेखक संघ के महासचिव रहे। अभिनय में विशेष रूचि रखनेवाले भीष्म साहनी कई नाटकों का मंचन भी कर चुके हैं। हानुस, कबिरा खड़ा बाज़ार में, माधवी, जैसी बहुचार्चित ऐतिहासिक नाटकों की रचना उनके द्वारा संपन्न हुई ।

'कबिरा खड़ा बाज़ार में' यह नाटक भीष्म साहनी के मौलिक और याथार्थवाद नाटकों में से एक है। यह नाटक धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों से संबंधित नाटक है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहा है। कबीर निर्गुण भक्ति धारा के अंतर्गत आनेवाले ऐसे फक्कड़ संत फकीर है जिन्होंने अपने सामाजिक परिवेश में विध्यामान धार्मिक और सामाजिक असंगतियों, कुरितियों के खिलाफ विद्रोहात्मक प्रहार किया है। कबीर के इस विद्रोहात्मक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का चित्रण 'कबिरा खड़ा बाज़ार में' इस नाटक में दर्शाया गया है। भीष्म साहनी स्वयं एक युगबोध साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने अपने युग के ज्वलंत विषम समस्याओं का चित्रण अपने साहित्य के माध्यम से किया है। कबिरा खड़ा बाज़ार में, एक ऐसा ही युग प्रवर्तक नाटक है जिसमें भीष्म साहनी ने सामाजिक विसंगतियों और कुरितियों के प्रति रोष और निम्न वर्ग के दयनीय स्थिति के प्रति दुख और करूणा की भावना व्यक्त की है। भारतीय समाज वर्ग भेद और वर्ण भेद की व्यवस्था पर टिकी हुई थी। ऐसे में इस वर्ग-भेद के नीति ने ऐसी दुर्व्यवस्था को जन्म देती है जिसके खिलाफ विद्रोह करना अनिवार्य था। भीष्म साहनी स्वयं भारत-पाकिस्थान विभजन, दूसरा महायुद्ध, भारत छोड़ो आन्दोलन, हिन्दु-मुस्लिम संघर्ष, सामाजिक और नैतिक मूल्यों को हस्व, साप्रांदायिक दंगा, सामाजिक अस्थिरता और असमानता के प्रत्यक्ष साक्षी रहा चुके हैं। उन्होंने अपने इन युगीन समस्याओं का चित्रण अपने साहित्य में किया है।

 

सामाजिक संघर्ष के तत्व :

कबीर का जन्म एक विधवा ब्रह्माण महिला से हुआ और नीरू-नीमा नामक दो जुलाहे दंपतियों ने उसकी परवरिश की थी। नीमा का कबीर से यह कहना कि "जिस माँ ने तुम्हे जन्म दिया, उसकी अपनी कुछ मजबूरियाँ रही होंगी, वरना कोई अपने बच्चे को क्यों त्यागती है ?" जैसे वक्तव्य इस बात का प्रमाण देते है कि मध्ययुगीन समाज में विधवाओं की स्थिति कितनी दुखदायक और त्रासदी से युक्त था।नीरू और नीमा हमेशा कबीर को बड़े लोगों से मुँह न लगने की बात बताते थे जो इस बात का प्रामाण देता है कि निम्न वर्ग के लोगों के दिलों में उच्च वर्ग के प्रति भय और अशांति की भावना बनी हुई थी। नीरू नीमा से यह बताता है कि "अगर उसे न उठा लाती तो मैं दूसरा विवाह कर लेता, कम से कम अपना संतान होने का सुख तो होता..... " जैसी बातें इस बात को सिध्द करते हैं कि मध्ययुगीन समाज में पत्नी बाँझ हो तो पुरूष को दूसरा विवाह कर लेने का अधिकार प्राप्त था। मतलब पुत्र-प्राप्ति को अनुवार्य और महत्वपूर्ण माना जाता था। दूसरी ओर लोई का कबीर से यह कहना कि उसके बापू ने उससे पूछे बगैर ही उसकी शादी कबीर से करवा दी, इस बात का प्रमाण है कि मध्ययुगीन समाज में स्त्री को किसी प्रकार की व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं दी जाती थी। वह माता-पिता के लिए भोज और पुरूष के लिए मात्र एक वस्तु बनकर रहा गयी थी।  

लोई के माध्यम से भीष्मजी ने पति-पत्नी के आदर्श और प्रेममयी संबंध का चित्रण करते हैं।गृहस्थ जीवन के सुख-शांति को बनाये रखने के लिए पति-पत्नी के बीच समानता और समन्वय की भावना का होना भीष्मजी अनिवार्य मानते थे। वे सही अर्थ में नारी के प्रति गौरव और सम्मान रखने के समर्थक थे। 

इस नाटक में आनेवाला कोतवाल एक ऐसा पात्र है जो कानून और सुरक्षा के नाम पर लोगों में दहशत फैलाने का काम करता है। ऐसे सत्तारूढ़ शक्तियों के दमनकारी नीति का चित्रण भीष्म साहनी ने कोतवाल जैसे पात्र के माध्यम से की है। नाटक के आरंभ में एक साधु द्वारा एक निरीह बच्चे को कोड़े मारना इस बात का प्रमाण है कि हिन्दुओं में श्रेष्ठ कहलानेवाले ब्रह्माण लोग किस प्रकार अपने से निम्न वर्ग के लोगों को नीचता की द्रष्टि से देखते थे, उनके साथ किस प्रकार पशुता का व्यवहार किया करते थे, इस बात का स्पष्ट प्रमाण हमारे सामने प्रस्तुत करता है। साधु के चरण धोए पानी को भक्त जनों द्वारा सेवन कर लेना, लोगों का आपस में यह बात करना कि साधु बड़े पहुँच हुए चमात्कारी पुरूष है, ये सोने के ताली में खाते है, पूजा-अर्चाना सोने के पात्रों से करते हैं, इनके मठ में 115 हाथी है, सौ-सौ स्त्रियों के साथ भोग करते है, लेकिन कभी वीर्यपात नहीं होता, पीपा का कबीर से यह कहना कि महंत के लोग गोरखपंथियों के 5 साधुओं को मारवा चुके, क्योंकि मंहतो यह नहीं चाहते कि दोनों मंदिरों के दरवाज़े आमने-सामने न खुले, आदि इस बात का प्रमाण है कि धर्म के आचरण के नाम पर ढोगी-पाखंड़ी साधु-सन्यासी लौकिक सुखों को त्यागने के बदले अनैतिक रूप से स्त्रियों के साथ भोग किया करते थे। वे इस अनैतिक आचरण को धर्म का नाम लेकर पुरूष प्रधान समाज में स्त्री को भोग वस्तु से समान प्रयोग किया करते थे। धर्म के आड़ में समाज के ऐसे धार्मिक नेता सामाजिक मूल्यों को हानि पहुँचाते थे।

कायस्थ से कोतवाल यह पूछता है कि काशी हिन्दुओं की नगरी है, लेकिन इनके धर्म आचरण में इतनी विविधता क्यों, तभी कायस्थ यह बताता था है कि हिन्दुसों में कई जातियाँ और उपजातियाँ है, ब्राह्मणों में ही कुल 107 जातियाँ है आदि बातें तो दूसरी ओर कोतवाल का यह सवाल की जटाधारी साधु हाथ में बड़ा सा चाबूक लिये लोगों को क्यों मारता है तो कोतवाल को समझाता हुए कायस्थ बताता है कि ऐसा इसीलिए किया जाता है जिससे नीच जाति के लोग राह चलते ब्राह्मणों के सामने न आ सके आदि बातें इस बात की पुष्टि करती है कि जन्म से उच्च और श्रेष्ठ कहलानेवाले ब्राह्मण लोग अपने से नीम्न वर्ग के लोगों को सामाजिक रूप से असभ्य, अस्पृश्य, नीच और हीन मानते हुए उनके साथ पशुता का व्यवहार किया करते थे। हिन्दु धर्म के अन्तर्गत वैष्णव, शैव, गोरखपंथी जैसे अनेक संप्रदाय मौजूद थे जो अपने अपने श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिए समाज के निम्न लोगों के खिलाफ षड्यंत्र माचाते रहे। ऐसे लोग धर्म, संप्रदाय के नाम पर समाज के लोगों में अंशांति और भयावह की स्थिति फैलाते रहे।

निष्कर्ष :

स्वतंत्रोत्तर परिवेश में रहकर भी भीष्मजी स्वतंत्रता-पूर्व के अपने अतीत के अनुभवों को भूला न सके। कबीर ने अपने कविता के माध्यम से सामाजिक कुरितियों का खण्डन किया है। कबीर के लिए उसकी कविता ही जीवन का प्रबल आधार था। जबकि भीष्म साहनी जी के लिए उनका जीवन अनुभव ही साहित्य का आधार बना। अपने युगीन समस्याओं का चित्रण जितना सफल रूप से भीष्म साहनी के साहित्य में हुआ है, यह इस बात का प्रमाण है कि साहित्यकार जिस परिवेश में पलकर बड़ा होता है, वही परिवेश और युगीन अनुभव साहित्यकार के साहित्य का मूलाधार बन जाता है।कबीर के द्वारा भंडार का आयोजन, अर्थात् सभी जाति के लोगों का भेद-भाव भूलाकर एक साथ एक थाली में खाना खाना, भीष्म साहनी की यह मौलिक कल्पना इसी मंगलमयी और लोक-कल्याण की भावना से नीहित है जो कि सही अर्थ में अपेक्षाणीय है। कबीर के माध्यम से भीष्म साहनी ने मनुष्यता को, मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठता को, धर्म-निरपेक्षता के महत्व को दर्शाया है।

भीष्म साहनी ने कबीर जैसे पात्र की सृष्टि कर एक युगबोध साहित्यकार होने का परिचय दिया है। यह नाटक एक ऐसा समकालीन नाटक है जो आधुनिक युग के वास्तविक चित्र को दर्शाता है।सादियों से गरीब असहाय वर्ग के लोग अपने अधिकार और अस्मिता के प्रति संघर्षरत हैं। आज देश का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो प्रबल जाति-व्यवस्था से प्रभावित न रही हो। सभी क्षेत्र पर धर्म का प्रभाव हावी हो चुका है। आज हिन्दु-मुसलमान लोगों के बीच जो अविश्वास और रक्त पीपासु की भावना रही है उसका बीज मध्ययुगीन समाज में पनप चुका था। इस द्रष्टि से भीष्मजी का यह नाटक समकालीन, यथार्थवादी और समन्वयकारी भावना से ओतप्रोत, मानवीय मूल्यों की स्थापना कर लोक-कल्याणकारी भावना को उजागर करती है। भीष्मजी का यह नाटक एक ऐसे चलचित्र के समान है जो ऐतिहासिक सामाजिक घटनाओं को पाठक के सामने प्रस्तुत कर नव युग निर्माण की चेतना को ओर प्रबल बनाती है। 

 

    दिनांक : 09.09.2015

 

 

                           

              • डॉ. ममता एन.आर
              • हिन्दी अध्यापिका, मिलाग्रेस कालेज,
              • हंपनाकट्टा, मंगलूरू – 575001   दूरभाषा संख्या : 9611361515  
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