ग्रामीण विकास में हिन्दी का योगदान
स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच वर्ष बाद भारत में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम का प्रारंभ हुआ। भारत का सर्वप्रथम सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community development movement) 1952 में प्रारंभ किया गया जिसमें गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को ग्रामीण विकास कार्यक्रम के साथ जोड़ा गया। तब से हर एक पंचवर्षीय योजना में गरीबी निर्मार्जन कार्यक्रम के पुन: कल्पन को विशेष महत्व दिया गया है और इस केलिए अर्थ-व्यवस्था के ग्रामीण आधारों को मज़बूत करने का प्रयास होता रहा है। किंतु आज भी हम को इस प्रयास में आशानुरूप सफलता प्राप्त नहीं हुई है। श्रीमति इंदिरा गांधी के द्वारा सन् 1971 के आम चुनाव में अपनाया गया " गरीबी हटाओ " का नारा आज आधुनिकोत्तर युग में भी राजनैतिकों के द्वारा चुनाव के समय अपनाया जा रहा है। किन्तु गरीबी के संबन्ध में आज भी जो आंकडे प्राप्त हो रहे हैं, वे हमारे लिए चिन्ता का विषय बने हुए हैं। सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई अधिकारिक सूचनाओं के आधार पर भारत की 100 करोड़ जनता में से 32 करोड़ आज भी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं। इनमें से सर्वाधिक अंश ग्रामीण अंचल में रहनेवालों का है। गरीबी के मुख्य कारण केवल आय, पौष्टिक आहार और प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव या कमी ही नहीं है बल्कि इस से भी अधिक महत्वपूर्ण कारण है इस वर्ग की, अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता और उदासीनता की भावना। इस परिस्थिति को देखते हुए निकट भविष्य में गरीबी पर पूर्ण विजय प्राप्त करना लगभग असंभव सा लगता है। किन्तु यदि एक बार इस तबके की निर्धन जनता को सम्मानपूर्वक जीने के अपने अधिकारों का बोध हो जाता है तो निश्चित ही इस समस्या की गुरुता को कम किया जाता है।
इस पृष्ठभूमि में सार्वजनिक शिक्षा और साक्षरता अभियान की प्रासंगिकता उभर कर हमारे सामने आती है। यह सत्य है कि शिक्षा का अभाव अथवा निरक्षरता केवल भारत की ही समस्या नहीं है। यह विश्व के अविकसित एवं विकासशील देशों की समस्या तो है ही साथ ही विश्व के अनेक विकसित एवं औद्योगिक दृष्टि से समुन्नत देशों की भी समस्या है। प्रारंभ से ही युनेस्को ने इस समस्या को गंभीरता से लिया है। युनेस्को की पहल पर सन् 2000 अप्रैल में डाकर में आयोजित विश्व शिक्षा सम्मेलन (वर्ल्ड एजुकेशन फॉरम) में इस दिशा में कुछ सार्थक निर्णय लिए गए हैं, जिनमें दो निर्णय भारत के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक लगते हैं। इन में प्रथम सभी बच्चों को, विशेष कर बालिकाओं एवं ग्रामीण और कठिन परिस्थितियों में जीवन बिताने वाले बच्चों को सन् 2015 तक अनिवार्य रूप से निशुल्क एवं अच्छे स्तर की विशेष कर स्त्री-साक्षरता में न्यूनतम 50 प्रतिशत सफलता प्राप्त करने तथा आवश्यकतानुसार उन की निरंतर शिक्षा की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करने से संबंधित है। इस सम्मेलन में यह भी उजागर हुआ कि निरक्षरता की समस्या केवल गरीब एवं अविकसित देशों की ही नहीं है, बल्कि अनेक संसाधन संपन्न धनी देश भी अपने-अपने देश की 20% से भी अधिक जनता की निरक्षरता के उन्मूलन की समस्या से जूझ रहे हैं। बीसवीं शती में यदि हमारा नारा "सब केलिए शिक्षा " (Education for all) रहा तो इक्कीसवीं शांति में हमारा नारा "सब केलिए आजीवन शिक्षा " (Life-long Education for all) होना चाहिए।
आज साक्षरता का लक्ष्य पढ़ना, लिखना अथवा संख्यात्मक कौशल प्राप्त कराना मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति को अपने समाज के उपयोगी अंग के रूप में स्थान प्राप्त करने केलिए आवश्यक कौशल एवं जानकारी उपलब्ध कराना भी है। अत: स्पष्ट है कि शिक्षा को राष्ट्रीय विकास, ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के साथ समन्वित करने की आवश्यकता है। शिक्षा, राष्ट्रीय विकास एवं निर्धनता न्यूनीकरण कार्यक्रम (Poverty Reduction Programmes) एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप से संबन्ध है।
शिक्षा की समस्या सामने आते ही स्वाभाविक रूप से शिक्षा के माध्यम की समस्या भी उभरती है। एकभाषीय देशों में शिक्षा के माध्यम को लेकर कोई विवाद या समस्या उपस्थित नहीं होती। लेकिन भारत जैसे बहुभाषीय देशों में शिक्षा के माध्यम के रूप में किसी भाषा को अपनाने में अनेक समस्याएं आती हैं। स्वतंत्र भारत के नियोजकों के सामने भाषाई समस्या ने क्या-क्या कठिनाइयाँ उपस्थित की हैं उन से हम बखूबी वाकिफ़ हैं। भारत के विकास के सभी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में माध्यम की समस्या न्यूनाधिक रूप में बाधक रही है। भारत के भाषा नियोजकों को चाहिए कि प्रत्येक कार्यक्रम के कार्यान्वयन में यहाँ की भाषाई परिस्थितियों की जमीनी वास्तविकताओं के प्रकाश में माध्यम संबंधी उचित निर्णय ले।
भारत को गाँवों में बसा देश कहा जाता है। 1991 की जनगणना के आधार पर भारत में गाँवों की कुल संख्या 6,27,434 है। (स्रोत मनोरमा इयरबुक) 1991 की जनगणना के आधार पर भारत में ग्रामवासियों की संख्या पूरी जनसंख्या की 73% है। इस अवसर पर मुझे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानन्दन पंत की एक कविता याद आती है " भारत माता "।इस कविता में कवि ने भारत माता को ग्राम वासिनी इसी अर्थ में कहा है। अत: स्पष्ट है हमारे देश के विकास का मूल आधार ग्रामीण विकास है। अत: भारत के विकास की हर योजना ग्रामीण विकास को बल देते हुए बनाई गई है। ग्रामीण समुदाय के सर्वागीण विकास के मूल में ग्रामीण जनमानस में ऐसी चेतना जागृत करने की आवश्यकता है जिससे उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा हो, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता, सहयोग एवं सहभागिता की भावना पैदा हो। यह कार्य सुनियोजित समाज-शिक्षा के द्वारा ही संभव है। यहाँ पर शिक्षा एवं साक्षरता के अभियान को गति देने की आवश्यकता हमारे सामने आती है। इस के साथ उचित माध्यम भाषा के चुनाव का प्रश्न भी जुडा हुआ है।
अब मैं कुछ सांख्यिकीय तथ्य प्रस्तुत करना चाहता हूँ क्योंकि विकास कार्यक्रम की चर्चा की विश्वसनीयता सांख्यिकीय तथ्यों पर ही बनती है। हमारे देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलो मीटर है जिसमें हिन्दी भाषी प्रदेशों का विस्तार ("क " क्षेत्र) (जिसमें उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाना, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली सम्मलित है) 13,55,341 वर्ग किलोमीटर है। यह भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग 41.2% है। इसके साथ हिन्दी के बहुत निकट की भाषाओं का क्षेत्रफल ("ख " क्षेत्र) लगभग 7,76,312 वर्ग कि.मी है जो कुल क्षेत्र फल का लगभग 23.6% है, को भी जोड़ दिया जाए तो देश के लगभग 64.8% इलाका या तो हिन्दी भाषी क्षेत्र है अथवा ऐसा क्षेत्र है जहाँ हिन्दी में संप्रेषण कार्य आसानी से चल सकता है और चल रहा है। इन आंकड़ों के आधार पर 64.8% क्षेत्र में समाज शिक्षा एवं विकास कार्यक्रमों की माध्यम भाषा के रूप में हिन्दी का असन्निग्ध स्थान है। यहाँ ग्रामीण विकास की सभी योजनाओं के कार्यन्वयन के प्रत्येक स्तर पर हिन्दी का प्रयोग निश्चित ही सहज एवं सफल सिद्ध होगा। मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हिन्दी के अतिशय प्रेम के वशीभूत होकर मैं भारत के अन्य हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की ग्रामीण विकास योजनाओं केलिए हिन्दी के प्रयोग की वकालत का दुस्साहस भी नहीं करूँगा। इन सभी इलाकों की अपनी अपनी विकसित भाषाएँ हैं जो निश्चित रूप से इस कार्य केलिए सक्षम है। भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में स्थित जनजातीय इलाकों की भाषाओं की अपनी सीमाएँ हैं। फिर भी वहाँ के ग्रामवासियों की संप्रेक्षण – आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ये भाषाएं समर्थ है। चूँकि ग्रामीण विकास से संबंधित हर पहलू जैसे कुटीर एवं लघु उद्योग, कृषि, हस्तकला, पशुपालन आदि उन के दैनिक जीवन के परिवेश से ही संबंधित है। इसलिए वहाँ पर इन भाषाओं के माध्यम से ग्रामीण विकास कार्य को कार्यन्वित किया जा सकता है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के विकास से संबन्धित (शहरी एवं ग्रामीण, औद्योगिक एवं तकनीकी) योजनाएं अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से बनाई जाती हैं क्योंकि इन विकासों का मॉडल (आदर्श) हम विदेशों से अपनाते हैं। अत: स्वाभाविक है कि कार्यान्वयन के स्तर पर इन परियोजनाओं को ग्रामीण जनता से वाँछित सहभागिता और समर्थन मिल नहीं पाता। गुणभोक्ता वर्ग का विश्वास प्राप्त न होने की स्थिति में योजनाओं को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो पाती। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से विकास-योजनाओं को अधिक सफल बनाया जा सकता है।
हिंदी सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बन चुकी है। अब भारत में इस की प्रयोगार्हता पर प्रश्न चिह्न लगाना व्यर्थ है। हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने संबंधी दो महत्वपूर्ण सांख्यिकीय अध्ययनों के रोचक परिणामों को प्रस्तुत करते हुए मैं इस आलेख को समाप्त करना चाहता हूँ। प्रथम अध्ययन प्रो.महावीर सरन जैन के द्वारा संपन्न हुआ और दूसरा अध्ययन डॉ.जयंती प्रसाद नौटियाल ने किया। दोनों ने 1999 की जन गणना के आधार पर यह स्थापित किया है कि बोलनेवालों की संख्या के आधार पर विश्व की भाषाओं में सर्वप्रथम स्थान हिन्दी को है जो विश्व के लगभग 18.9% जनता द्वारा व्यवह्रत है। भारत के पड़ोसी देशों और प्रवासी देशों के अतिरिक्त लगभग 55 से अधिक देशों में विश्व विद्यालय स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की समुचित व्यवस्था है। द्वितीय स्थान पर चीनी भाषा है जिसके जानने वालों की संख्या विश्व की जनसंख्या का 18% है। तथाकथित विश्व भाषा अंग्रज़ी के बोलनेवालों की संख्या मात्र 5.8% है। अब तो हमारी आँखें खुल जानी चाहिए।
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