डॉ. प्रभाकरन हेब्बार इल्लत्तु, ब्रेन्नन कॉलेज, तलश्शेरी में हिन्दी विभाग में असिस्टन्ड प्रोफेसर है और हिन्दी के लेखक-अनुवादक हैं । हाल ही में, उन्हें सुधीरा के प्रख्यात मलयालम उपन्यास 'गंगा' के हिन्दी में अनुसृजन के लिए 'बालकृष्ण गोइन्का अनूदित साहित्य पुरस्कार' से नवाजा गया है ।
भाषा की महता
"इतमंधतमम कृत्सनम जायते भुवनत्रयम।
यदि शब्दाह्वयम ज्योतिरासंसारम न दीप्यते।।"
दण्डी (काव्यादर्श)
दंडी की राय में इस संसार में जो प्रकाश फैलाता है, वह भाषा से ही संभव है। भाषा के बिना पूरा संसार अंधकारमय लगता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'भाषा' शब्द 'भाष' धातु से बना है जिसका अर्थ 'बोलना' या 'कहना' होता है। भाषा के माध्यम से एक ओर मानव अपने ह्रदयगत विचारों को अभिव्यक्त करता है तो दूसरी तरफ अपने जीवन भर स्वत्व की पुष्टि हेतु विचारों का अभ्यंतरीकरण भी करता रहता है। मानव के सामाजिक अस्तित्व के रूपायन में भी भाषा एक अहम भूमिका निभाती है। वह अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, विचार, दर्शन, संस्कृति की संचिका भी है। भाषा में किसी एक भाषिक समाज द्वारा परंपरा से आकलित परिकल्पनाएं, संकल्पनाएं आदि ध्वनि-प्रतीकों के रूप में सुरक्षित हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संसार भर की भाषाएं असल में तरह-तरह के ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखती हैं। यही ज्ञान-संचय मानव की प्रगामी प्रगति को सुगम बनाता है। इस दृष्टि से भाषा का नाश या ह्रास उस खास ज्ञानराशि का नाश है। इसलिए संसार में विभिन्न भाषाएं नहीं होतीं तो संसार का सर्वतोन्मुखी विकास संभव नहीं होता। यह ज्ञान राशि वास्तव में मानव समाज के समेकित प्रयास का अंजाम है। यह समेकित प्रयास जीवन के विकास के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि मानव के अस्तित्व की जड़ें अतीत में सुरक्षित हैं। अत: अतीत से कटकर मानव के वर्तमान के अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मानव के जीवन की इतिहास रचना में भाषा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यह भी स्मर्तव्य है कि मनुष्य और अन्य जानवरों के बीच के मूलभूत अंतर का कारण भी यही भाषा है। कुञ्ञुण्णिराजा ने ठीक ही कहा है-'यदि मानव द्वारा भाषा का आविष्कार नहीं किया गया होता तो अन्य पशु-पक्षियों की तरह मानव को भी जन्म-वासनाओं के आधार पर जिन्दगी चलानी पड़ती।'1
मानव का इतिहास और भाषा का इतिहास दोनों इतने प्राचीन हैं कि दोनों के सह-सम्बन्ध की तलाश करना कठिन है। मानव की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के साथ भाषा का विकास हुआ या भाषा के विकास के साथ-साथ मानव का विकास हुआ, इसपर निर्णय करना कठिन काम है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए प्लेटो जैसे प्रदीच्य दार्शनिक यहां तक कहते हैं कि 'भाषा से मानव जीवन की यात्रा का श्रीगणेश हुआ।'भाषा मानव की संपूर्ण ज्ञान राशि का कोश है और मानव का जन्म असल में उस भाषा की ज्ञान राशि में होता है। 'सापिर-वोर्फ हैपोनतिसिस' के अनुसार मानव का दृष्टिकोण, उनका उद्भव, अनुभव सब भाषा के कब्जे में है। रुडोल्फ कारनाप के अनुसार 'मानव का दार्शनिक चिंतन भी भाषा सापेक्ष है।'चिह्न विज्ञान तथा विघटन की मान्यता यह है कि भाषा ही सबका मूलतत्व है।3 कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा मानव की सर्ग-शक्ति का आधार है, जीवन की सहकारी प्रवृत्ति का आधार भी वही है। मानव का संपूर्ण इतिहास इसका साक्षी हैै।
यह मानी हुई बात है कि मानव भाषा के माध्यम से अधिकांश बातों की जानकारी प्राप्त करता है। भाषा सीमित अर्थ में विचारों को प्रकट करने का माध्यम है। लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से भाषा अर्जित ज्ञान या विचारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है, क्योंकि सामान्य रूप से अभिव्यंजना अर्जित बातों की ही संभव है। भाषा को पारिभाषित करते समय विद्वान लोग भाषा के विभिन्न पक्षों पर विशेष ध्यान देते हैं। 'ब्लेक भाषा को यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं4 तो 'वतांगो एवं फिनोषियारो जैसे उच्चकोटि के पंडित भाषा के सांस्कृतिक अभिव्यंजना के पक्ष पर ज़ोर देते हैं।5,6 सुकुमार सेन 'अर्थावान् कंठोद्गीर्ण ध्वनि समष्टि को भाषा कहकर अर्थ पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं7, लेकिन बाबूराम सक्सेना "जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करते हैं, उन्हें भाषा कहते हैं।8 राजमणि शर्मा के शब्दों में- "मानव समुदाय द्वारा उच्चरित स्वन संकेतों की वह यादृच्छिक प्रतीकात्मक व्यवस्था भाषा है जिसके द्वारा विचारात्मक स्तर पर मानव समुदाय विशेष परस्पर संपर्क स्थापित करता है।''9 मोटे तौर पर भाषा विचार विनिमय का साधन है, वह उच्चारण अवयवों से उच्चरित यादृच्छिक ध्वनि चिह्नों का रचना- समूह है। प्रतीकात्मकता, यादृच्छिकता, क्रमबद्धता, विविधता, परिवर्तनशीलता आदि भाषा की विशेषताएं हैं। भाषा एक व्यवस्था है और अर्जित व्यवहार है, साथ ही वह मानव की समस्त उपलब्धियों का कोश भी है।
ऐसा कहा जाता है कि संसार- भर में यदि एक भाषा होती तो प्रगति की गति तेज़ हो जाती। यदि पूरे संसार में एक भाषा होती तो हमें ज़रूर एकरसता का विषपान करना पड़ता, विविधता में जो सौंदर्य है, उसको खोना पड़ता। लेकिन वर्तमान काल में संसार की बड़ी-बड़ी भाषाओं के सामने छोटी-छोटी भाषाएं अपने ठौर-ठिकाने ढूंढ़ने में कठिनाइयां महसूस कर रही हैं। लेकिन किसी भी हालत में हमारी भाषाओं को सुरक्षित रखना भविष्य की पीढ़ी की भलाई को देखकर अनिवार्य-सा बन गया है। इसलिए कि संसार की विभिन्न भाषाएं मानव के बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं के विभिन्न स्तरों को ही उद्घाटित करती हैं। मानव की जीवन चेतना भाषा की बुनियाद पर सुदृढ़ है।
भाषा का एक संवेदनशील आधार होता है। स्वभाषा के माध्यम से किसी भी भाषिक समाज में भावात्मक और राष्ट्रीय एकता की पुष्टि होती है। भाषा मानव की संस्कृति की वाहिका एवं संचालिका शक्ति है। भारत के लोग बाहरी दृष्टि से अलग दिखने पर भी आंतरिक दृष्टि से सांस्कृतिक एकता का अनुभव करते हैं। विस्तृत दायरे के अंतर्गत संस्कृति में समस्त ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, मूल्य, आदर्श सब समाहित हैं। सांस्कृतिक परंपरा की दृष्टि से भारतीय भाषाएं एक हद तक समान हैं। 'मानव अपनी निज भाषा के माध्यम से ही सांस्कृतिक पाठ (कल्चरल टेक्स्ट) को आत्मसात करते हैं।10 इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज के सांस्कृतिक उत्थान में उस समाज विशेष की भाषा का खास महत्व है। वह एक सामाजिक वस्तु भी है। साथ ही हम अपने दैनिक जीवन में उभरने वाली विभिन्न समस्याओं का समाधान भाषा की सहायता से ही ढूँढते हैं। भाषा के अभाव में चिन्तन की प्रक्रिया असंभव हो जाती है या अधूरी रह जाती है। सामाजिक जीवन को नियंत्रित करनेवाले नैतिक-धार्मिक मूल्य भी एक समाज विशेष की भाषा से संबंधित है। वी.के. नारायणन ने ठीक ही कहा है- 'विचारों की अभिव्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने के लिए तथा वैकारिक पक्षों की अभिव्यक्ति के लिए बुद्धि के माध्यम के रूप में भाषा ही काम करती है।11
भाषा सामाजिक प्रगति का आधार है। भाषा की संपन्नता एवं मानव की सृजनात्मकता के साथ अभिन्न संबंध है। मानव-संसाधन और स्वभाषा के बीच का सरोकार स्वयंसिद्ध है। श्री ब्रोल्सफोर्ड के शब्दों में –'केवल एक ही भाषा में हमारे भावों की स्पष्ट अभिव्यंजना हो सकती है। केवल एक ही भाषा के शब्दों के सूक्ष्म संकेतों को हम सहज और निश्चत रूप से ग्रहण कर सकते हैं। यह भाषा वह होती है जिसे हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं जिसमें हम अपनी प्रार्थनाओं और हर्ष तथा शोक के उद्गारों को व्यक्त करते हैं।'12 अत: दूसरी किसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना विद्यार्थी के श्रम को अनावश्यक रूप से बढ़ाना ही नहीं अपितु उसके मस्तिष्क की गति को पंगु बना देना भी है। मातृभाषा या निज भाषा वह भाषा है जिसकी सहायता से मानव नए विचारों की सृष्टि करता है। मातृभाषा का 'मातृ' विशेषण सृजनशीलता या उर्वरता का प्रतीक है। मातृभाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं में यह गुण उपलब्ध नहीं है। तात्पर्य यह है कि मानव की सृजनात्मकता भाषा से जुड़ी हुई बात है। 'वही मानव को तमस से ज्योंति की ओर ले जाता है,वर्तमान तथा भविष्य की रचना में हाथ बंटाता है।13
मानव जीवन की विभिन्न परिकल्पनाएं, संकल्पनाएं, विचार, दर्शन इत्यादि भाषा के कलेवर में सुरक्षित हैं। मातृभाषा के माध्यम से यदि हम ज्ञान को आत्मसात करते हैं तो ये परिकल्पनाएं आदि मूर्त रूप में हमारे मानसिक पटल पर अंकित हो जाती हैं। अन्य भाषाओं के माध्यम से जब हम विचारों को आत्मसात करने की कोशिश करते हैं तब बौद्धिक ऊर्जा का क्षरण होता है। तात्पर्य यह है कि मानव के विचारों को स्वस्थ रूप निज भाषा ही प्रदान करती है। क्योंकि यही विचारों की जननी है। भाषा मानव को सृजनात्मकता के नए क्षितिजों को छूने की शक्ति प्रदान करती है। 'विचारों एवं अनुभवों के नए वातायन भाषा की सहायता से स्वाभाविक रूप से खुल जाते हैं।14
कहा जा चुका है कि भाषा सामाजीकरण का मज़बूत माध्यम है। इस सामाजीकरण की प्रक्रिया में समाज विशेष की परंपरा, संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। मानव केवल वर्तमान के बल पर जीवित नहीं रह सकता। मानव यादों के बल पर जीनेवाला जानवर भी होता है। अतीत से विलग कर वर्तमान की सृष्टि करने का विचार पानी की लकीर मात्र है। मानव के सामाजीकरण की प्रक्रिया के मज़बूत माध्यम के रूप में भाषा मानव को एक प्रकार की सामाजिक पहचान भी प्रदान करती है। समाज संरचना के रूपायन में भी भाषा की भूमिका गणनीय है। इसलिए श्री नारायण सिंह कहते हैं- "मनुष्य एक चेतनाशील प्राणी है। भाषा मानवीय चेतना की अन्यतम उपलब्धि है। जिस चिन्तन और बोध की एकरूपता के बल पर मनुष्य सामाजिक प्राणी बना है, उस चिंतन और बोध के संप्रेषण का सबसे समर्थ माध्यम भाषा है। यही कारण है कि सामाजिकता भाषा का सहजात गुण और धर्म होती है। इस सहजात गुण और धर्म के बल पर भाषा विकसित होकर संस्कृति की वाहिका बनती है। इसलिए भाषा में उसके बोलने वाले लोगों के आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज़,भौगोलिक पहचान और व्यापक जीवन-व्यापार उद्घोषित होते हैं।15
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मंतव्य है कि इंसान की बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं का विकास निज या स्वभाषा में ही संभव है। राष्ट्रपिता गांधीजी इस बात से अवगत थे। उन्होंने 6 फरवरी 1916 में काशी विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कहा था- "ज़रा, सोचकर देखिए कि अंग्रेज़ी भाषा में अंग्रेज़ बच्चों के साथ होड़ कराने में हमारे बच्चों पर कितना वज़न पड़ता है। पूना के कुछ प्रोफेसरों से मेरी बात हुई। उन्होंने बताया कि चूँकि हर भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेज़ी के मार्फत ज्ञान संपादन करना पड़ता है। इसलिए उसे अपनी बेशकीमती बरसों में से कम से कम छह वर्ष अधिक व्यय करने पड़ते हैं। हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलनेवाले विद्यार्थियों की संख्या में इस छह का गुना कीजिए और फिर देखिए कि राष्ट्र के कितने हज़ार वर्ष नष्ट हो चुके हैं।" इसलिए हमारी शिक्षा-व्यवस्था में और सामाजिक जीवन के विभिन्न आयामों में निज भाषा का अधिकाधिक प्रयोग हो ताकि उसके अस्तित्व की रक्षा की जा सके। भाषा प्रयोग के बल पर विकसित होती है। आजकल जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में औचित्य का पालन न करते हुए विदेशी भाषाओं का इस्तेमाल खूब हो रहा है जिससे हमारा सामाजिक जीवन रोगग्रस्त हो रहा है। "औषधं युक्तमस्थाने गरलं तनुजायते"- संस्कृत की यह सबक हमारे लिए सौ-फीसदी लागू है। हम अपनी मातृभाषा पर गर्व करें, उसका विकास करें। कभी भी एकशिलात्मक संस्कृति मानव की सृजनशीलता या उन्नति के लिए सहायक सिद्ध नहीं होती है। वैयक्तिक व सामाजिक, तद्वारा राष्ट्र को यदि सच्चे अर्थों में विकसित तभी कहा जा सकता है जब मातृभाषा का विकास हो जाता है। मातृभाषा को त्याग देने पर या उसपर अधिकार न प्राप्त करने पर मानव आन्तरिक रूप से खोखला हो जाता है। 'मातृभाषा वह भाषा है जिसके द्वारा बच्चा अपने आसपास के वातावरण और खुद को जानता और सुगठित करता है। भाषा के द्वारा व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, भावों, विचारों, खुशी, दुख और अन्य सभी संवेदनाओं को प्रकट करता है।16इसलिए कोठारी कमीशन आदि ने आंतरिक विकास एवं सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के शिक्षण पर ज़ोर दिया था।'17,18.भाषा वही चीज़ है जो मानव के अपने भूतकाल के साथ संबंध स्थापित कराती है, उसके जरिए ही इंसान संस्कृति,परंपरा आदि के साथ नाता जोड़ सकता है। इसलिए ज़ाकिर हुसैन समिति ने सिफारिश की है कि 'चिंतन की स्पष्टता, मूल्यों का प्रसार, छात्रों की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति के विकास व सृजनात्मकता के विकास के लिए मातृभाषा अनिवार्य है।19 यह सामान्य रूप से स्वीकार्य है कि किसी व्यक्ति के चिंतन में सुनिश्चितता और विचारों में स्पष्टता का विकास तब तक संभव नहीं होता जब तक मातृभाषा में उसको सख्त अधिकार नहीं होता, क्योंकि 'भाषा जीवन पर जबरदस्त असर डालती ही है, वही सब कुछ तय करती है।20 इसलिए शिक्षा आदि की भाषा मिट्टी की भाषा हो, जिसमें हमारी संस्कृति की गंध हो। वही मानव की आंतरिक शक्तियों का विकास करती है और मानव को सुसंस्कृत बनती है। 'संसद की समिति ने भी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को स्वीकार किया था।21 क्योंकि शिक्षा मानव के व्यक्तित्व तथा बुनियादी स्वतंत्रता की रक्षा का साधन है। जिस प्रकार तन के विकास के लिए माँ के दूध की आवश्यकता है उसी प्रकार मानव मन के विकास के लिए मातृभाषा/निज भाषा अनिवार्य है। वह मानव के आन्तरिक क्षितिज के विकास का साधन है। आजकल इसी का स्थान अंग्रेज़ी भाषा ले रही है जो भारत की भाषाओं के विकास में रोड़े की तरह उपस्थित है। भाषा के दो प्रमुख पक्ष होते हैं- व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक। भाषा का नाश/ह्रास सांस्कृतिक नाश/ह्रास का कारण बन जाता है। भाषा मानव को मानव बनानेवाली चीज़ है जिससे नर नारायण बन सकता है। आलबेर्ट स्विटसेर ने कहा है-'मानव केवल एक ही भाषा में चिंतन कर सकता है वह उनकी मातृभाषा है।22 सैडलर कमीशन (1917-19)ने भी इस बात पर विशेष ध्यान दिया है। यह भी स्मर्तव्य है कि निज भाषा के माध्यम से ही भावात्मक एवं राजनैतिक एकता का विकास संभव है। मानव की सर्वतोमुखी उन्नति निज भाषा से ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त होती है। अत: उसका संरक्षण और संवर्धन किसी भी भाषिक समाज के ज्ञान-वैज्ञानिक परंपरा तथा सांस्कृतिक पोषण के लिए अनिवार्य है। भाषा मानव की अनूठी उपलब्धि है। भाषा के माध्यम से ही प्रगति का पथ सुगम हो जाता है। भाषा वर्तमान एवं भविष्य की रचना में भी अपना योगदान देती है। सच्चे अर्थों में मातृभाषा हर मानव के जीवन का वरदान है।
संदर्भ:
1. डॉ. के. कुञ्ञुण्णिराजा- भाषा दर्शनवुम चरित्रवुम-प.1.
2. के.के. बाबुराज-भाषयुम वंशीयतयुम-पृ-2.
3. वी. सी. श्रीजन - चिंतयिले रूपकङल-पृ-21.
4. Language is a system of arbitrary vocal symbols by means of
which a society group cooperates डॉ. हरिमोहन-राजभाषा हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के अनुवाद की समस्याएं-पृ-9.
5. Ngugi Wathiongio- Language, any language has dual character-
it is both a means of communication and a carrier of culture. Editor - Roxy Harris-The language ethnicity and race reader P. 74.
6. Finocchiaro–Language is system of arbitrary vocal symbols,
which permit all the people in a given culture or other people who have learned the system of that culture to communicate or to interact. Editor Mugibul Hassan sidhiqui - Research in teaching of literature –P-133.
7. राजमणि शर्मा-भाषा विज्ञान की भूमिका-पृ-17.
8. राजमणि शर्मा-भाषा विज्ञान की भूमिका-पृ-17.
9. राजमणि शर्मा-भाषा विज्ञान की भूमिका-पृ-17.
10. ई.वी. रामकृष्णन-अक्षरवुम आधुनिकतयुम-पृ-12.
11. वी.के. नारायणन-भाषयुम माध्यमवुम-पृ-15.
12. के. क्षत्रिया-मातृभाषा शिक्षण-पृ-16.
13. Language has been called the highest and the most amazing achievement of human mind. It is of course the reception by which man defends his position as monarch of all he survives by this magic wand. The world as we know it was created words has transformed human chaos into the social order savagery into civilization and ignorance into knowledge. Language makes it possible for us to experience what is absent in space and remote in time to create the past and to anticipate and fashion the future. Kavitha Jain-The teaching of English-P-34.
14. A common view of the language is that, it merely a tool of thought in other words, that we have ideas forming in our minds for which we used to find the appropriate words, the words are simply the expression of the ideas in practice however the words are the ideas because our ideas are governed in language Geoffrey Finch-How to study linguistics-P-34.
15. अनुशीलन-मार्च-2004-पृ-22.
16. डॉ. डी. पी पट्टनायक-अध्यापक प्रशिक्षकों के लिए भाषा पाठ¬चर्या-पृ.19.
17. A.R. Rather (Editor)- Development of Educational system in India- 52-53.
18. Government of India proposed a three language formula in 1961 it was subsequently modified by Kothari Commission (1964-66) seeking to accommodate as Sreedhar says the interest of the group identity (mother tongue and regional languages), national pride and unity ( Hindi) and administrative efficiency and technological progress(English) R. K. Agnihothri - Problematizing English in India. P. 32.
19. The mother tongue is the true vehicle of the mother's wit. An other medium of the speech may bring with it a current of new ideas. But the mother tongue as one with the air in which a man is born…… a man's native speech is almost like his shadow, inseparable from his personality. A.R. Rather (Editor)- Development of Educational system in India Secondary Education Commission-P-49.
20. The Faculty of language enters cruicialy in to every aspect of human life thought and interaction. Noam chomsky - New horizons in the study of language and mind P. 3.
21. It was recommemded by the committee of members of Parliament on Education that the Indian languages should be the media of instruction at all stages of education. A.R. Rather (Editor)- Development of Educational system in India Secondary Education Commission-P-125.
22. Editor-Rajendra Singh-Language and development-P-129.
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