नेपथ्य राग में नारी-संवेदना
डॉ आशा एस नायर
हिंदी साहित्य के उभरते साहित्यकार डॉ मीरा कान्त का नाटक है "नेपथ्य राग" l नेपथ्य राग पौराणिक कथा को आधुनिक परिवेश में रोपने का प्रयास है l शीर्षक से ही यह साफ ज़ाहिर होता है कि परदे के पीछे रहने के लिए विवश या मजबूर या थकेले हुए कुछ आत्माओं की त्रासदी है प्रस्तुत नाटक l नेपथ्य से गूंजकर वहीँ समाप्त होनेवाली सिसकियाँ शायद ही किसी और के कानों में जा मिलती है l
समकालीन रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि सभ्य एवं समुन्नत समाज में भी स्त्री दहलीज़ नहीं पार कर सकी है l हाथ में मशाल लेकर खडी ज़रूर है, मगर आवाज़ अब भी नेपथ्य में गूंजकर उसी में विलीन होती है l काल-प्रवाह की तीव्र गती में कई परिवर्तन आये हैं , कई चट्टानें उघड गए हैं l स्त्री को अँधेरे से बाहर लाने की कोशिशें ज़ोरों पर हुई है, फिर भी स्त्री किन कारणों से आगे नहीं बढ पाती है उन्हें ढूँढ निकालने का प्रयास नाटक में हुआ है l
प्रस्तुत नाटक पुरुष सत्तात्मक समाज की मानसिकता का उद्घाटन करने के साथ-साथ नारी-मानसिकता के दुर्बल पक्ष को भी उजागर कर देता है l नाटक का केंद्र पात्र खना, जिसके इर्द-गिर्द बाकी सारे भ्रमण करते रहते हैं पहले एक शक्त नारी के रूप में प्रस्तुत होती है l अपने भीतर की इच्छा को प्रज्वलित करती हुई दुनिया के तमाम रीति-रिवाजों को ठोकर देकर अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर निर्भीक अग्रसर होनेवली है l चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के सभा-रत्न वराह मिहिर की शिष्या बनने का सौभाग्य उसे प्राप्त होता है l लेकिन विवाह का प्रस्ताव सामने आते ही वह एक साधारण युवती की तरह असमंजस में पड़ती है l चाचा सुबंधु भट्ट के स्नेहपूर्ण दबाव में आकर विवाह के लिए अपनी इच्छाओं को दबा देती है l इससे तात्पर्य यह नहीं है कि विवाह अकांक्षाओं की सीमा रेखा है l वह यह जानती ज़रूर थी की विवाह के पश्चात् नक्षत्रों की दूरी नापना उतना आसन नहीं जितना पहले था l फिर भी परम्पराओं को माननेवाली खना उसके आगे सर झुका देती है l खना अपने मार्ग में आनेवाले अडचनों को पार करने में सफल होती है , क्योंकि पृथुयशस जैसा पंडित एवं ज्योतिषी पति के रूप में प्राप्त हुआ और वराह मिहिर जैसा सभा रत्न श्वसुर के रूप में l मगर जीवन के पथ में आगे बढने के लिए खना जैसी लड़की को इतना काफी नहीं है l
खना का पांडित्य धीरे-धीरे घर की चार दीवारी पार करके महाराज विक्रमादित्य के कानों तक पहुँचता है l विक्रमादित्य अपने प्रशासन के उलझन को सुलझने के लिए वेश बदलकर वराह मिहिर के यहाँ पहुँचते हैं l वहां खना से अनजाने में मुलाकात होती है और अपनी समस्या का समाधान पाकर अचम्भित होते हैं l खना का प्रवचन सच निकलता है और महाराज उससे प्रभावित होकर अपने राज-सभा का रत्न बनवाना चाहते हैं l एक स्त्री को सभा-रत्न बनाने का निर्णय सुनकर पुरुष सत्तात्मक समाज भौहें सिकुड़ता है l खना संतुष्ट होती है, साथ ही शंकालू भी l शंका इसलिए कि सभा के अन्य रत्न उसे-एक स्त्री को – रत्न के रूप में स्वीकार करेगा l खना का विचार सही निकलता है l धन्वंतिरी, घटखर्पर, क्षपणक, वररुचि जैसे रत्न इस बात को व्यग्यात्मक ढँग से लेते हैं l स्त्री से विरोध नहीं मगर सभा- रत्न के रूप में स्वीकारना मुश्किल हैं l वे यह नहीं चाहते हैं स्त्री रत्न के रूप में सम्मानित हो l वह केवल अलंकरण मात्र रह सकती है , मेधाशक्ति से कुछ पाए, यह स्वीकार नहीं l वराह मिहिर भी इस षड्यंत्र में शामिल होता हुआ नज़र आते हैं l चिंता में मग्न श्वसुर से खना पूछती है – " क्या नवरत्नों को मेरा प्रवेश स्वीकार्य हैं ? "
वराह मिहिर –"परन्तु उनका कहना है कि यदि स्त्री सभासद बने तो पहले उसकी जीभ काट ली जाए l"
खना – (करुणामयी मुस्कान के साथ स्वगत) स्त्री सभासद ..पिताजी आप तो व्यर्थ ही चिंतित हैं l श्रावण क्या यह तो आषाढ से भी पहले के मेघ हैं l बरसेंगे नहीं l आषाढ अभी नहीं आया ..नहीं आया ... आषाढ आने में कई संवत्सर बीत जायेंगे ...कई युग ....यह नेपथ्य है.. इसे मंच तक पहुँचने में समय लगेगा...कल्पान्त ...कई युग...l (पृ : ६१, नेपथ्य राग )
खना तो नेपथ्य में खड़ी है l खना ही नहीं ज़्यादातर स्त्रियां नेपथ्य में ही खड़ी है l कई तो खुद खडी होती है, तो कई ऐसा करने के लिए विवश हैं l खना की कथा तो चौथी- पांचवीं शती की है l वही हो या इक्कीसवीं शती की स्त्री परदे के पीछे खडी होने के लिए बाध्य होती है l समाज चाहे सदियों पुराना हो या भूमंडलीकरण के दहलीज़ पार कर चुका हो उसके नज़रिए में कोई बदलाव नहीं आया है l
कहा जाता है कि खना का जिह्वा काट दिया गया था l कुछ का मानना है कि श्वसुर को अपमान से बचाने के लिए अपनी जुबां खुद काट ली थी l यह भी कहा जाता है कि उसकी जुबां वराह मिहिर ने ही काटी थी l जुबां खुद काट ली हो या किसी और द्वारा कटवा दी हो, पुरुष के लिए विचारहीन स्त्री ही स्वीकार्य है l युगों से समाज रुपी रंग मंच के नेपथ्य में वह खडी है – दीपशिखा हाथ में लेकर l दीपशिखा मार्ग दिखाने का साधन है, क्रांति का प्रतीक है l लेकिन प्रतीक, प्रतीक मात्र रह गया है l नाटक के अंत में खना हाथ में दीपशिखा लेकर मूर्तिवत रह जाती है l डेढ हज़ार वर्ष पूर्व घटित खना की कहानी में वह उस स्त्री का प्रतिरूप है जो सुशिक्षित होने के बवाजूद समाज के दहलीज़ पार नहीं कर सकी l उतने ही वर्ष बाद भी स्त्री वहीँ की वहीँ खडी है l वहां से कुछ दूर इधर-उधर घूमने के बाद चक्कर काटती हुई वहीँ आकर जम जाती है जहाँ वह पहले खडी थी l वर्तमान युग में भी स्त्री सुशिक्षित और उच्च पद पर आसीन होते हुए भी समाज में और अपने जीवन में ज्यादा परिवर्तन नहीं ला पायी l आधुनिक स्त्री का प्रतीक मेधा भी अपवाद नहीं है l वह कर्म के क्षेत्र में अपना स्थान बनाये रखने की कोशिश करते-करते पराजित हो जाती है l पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री हाशिये में खड़ी होती ही रहती है l
इसका पूरा दोष समाज और पुरुष पर नहीं , कुछ हद तक स्त्री भी खुद ज़िम्मेदार है l समाज में अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कितनी स्त्रियाँ करती होगी ? जीवन के रस्ते हो या कर्म के क्षेत्र हो स्त्री को संघर्ष शील रहना है और अडचनों को पार करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचना है l समाज और परम्पराओं के दायरे में उलझी स्त्री मानसिकता अपनी आशा-आकाँक्षाओं से ज्यादा उसे प्रमुखता देती है l भीतर से पिघलते हुए मोम बत्ती की तरह औरों के जीवन को रोश्नी प्रदान करती रहती है l खना भी ऐसी एक स्त्री है l उसे सभा-रत्न बनना पसंद था और अत्यंत दुःख के साथ अन्य रत्नों के निर्णय को वह स्वीकार कर लेती है कि जिह्वा विहीन स्त्री ही रत्न बन सकती है l वैचारिक अभिव्यक्ति से वंचित व्यक्ति कोई भी सभा का अलंकरण नहीं कर सकती l केवल भौतिक रूप से मौजूद होना किसी के लिए भी शोभा दायक नहीं है l खना जैसी कुशाग्र बुधि रखनेवाली के लिए मौजूदगी से ज्यादा वैचारिक अभिव्यक्ति ही प्रमुख है, पहचान है l उससे वंचित होकर रत्न बनना क्यों स्वीकार किया , इसका उत्तर खोजते हम उसके भीतर की आदम्य अभिलाषाओं से टकराते हैं l मूक रहने के लिए मजबूर होने पर भी खना चन्द्र गुप्त की राज सभा का रत्न बन पाती है l यह उस ज़माने की स्त्री के लिए महान कार्य है l हमेशा उसकी इच्छा यही रही कि वह जीवन में उपलब्धियां हाज़िल करे ,शास्त्र एवं विज्ञान के क्षेत्र में वह हमेशा याद रहे l जुबान रहित होने पर भी वह अपने इस संघर्ष में कुछ हद तक विजयी होती है l
जुबान का काटना प्रतीकात्मक है l वैचारिक अभिव्यक्ति से वंचित कराना एक महत्वाकांक्षी और पंडित व्यक्ति को मृत्यु दंड देने के सामान है l ज्ञान की दुनिया में विचरनेवाले विचारशील हैं l अपनी मेधा शक्ति की क्षमता के अनुसार उदात्त विचारों से आलोकित करता रहता है l जुबां कटी हुई खना सभा में एक अलंकरण मात्र रह जाएगी l (स्त्री अलंकरण की सामग्री है, जिसका प्रयोग कहीं भी कर सकता है, उसमें ज़माने का कोई अंतर नहीं है l) उसके विचारों का कोई मायना नहीं है l यह जानते हुए खना सभा में जाना पसंद करती है l क्योंकि सभा में अन्य पुरुष रत्नों के साथ वह उपस्थित हो सकती है l यह भी एक प्रकार की सफलता है l जहाँ पहुंचना है वहीँ पहुँच गयी l अपनी महत्वाकांक्षाओं की दुनिया में उसका (स्त्री का) पहला कदम है यह l फिर भी यह सोचने के लिए विवश है कि स्त्री के विचारों को, उसकी मेधा शक्ति को सही मायने में पहचानने का दिन अभी भी नज़दीक नहीं है l वही दिन की प्रतीक्षा में खना हाथ में दीपशिखा लेकर खडी है l उसका त्याग और श्रम सार्थक होगा, यही उम्मीद हम भी ले सकते हैं l नाटककार डॉ मीरा कान्त का कदम भी सार्थक होगा l
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