शोधपरक लेख

पारिस्थितिकी के परिप्रेक्ष्य में मलयालम कविता

डॉ. देवकी एन.जी.

बीज शब्द - पारिस्थितिकी, पर्यावरण, प्रकृति, गहन पारिस्थितिकवाद, सामाजिक पारिस्थितिकवाद, पारिस्थितिक स्त्रीवाद, पारिस्थितिक मार्क्सवाद

सारांश

साहित्य की विभिन्न विधाओं के सन्दर्भ में पर्यावरण विज्ञान के अध्ययन ने एक नई साहित्यिक प्रवृत्ति को जन्म दिया जो "पारिस्थितिकी' से जाना जाता है । पारिस्थितिकी पर्यावरण विज्ञान (Environment Science) की एक शाखा है जिसके तहत जीवों और उनके पर्यावरण के विषय में अध्ययन किया जाता है । परिस्थिति तो स्थूल रूप से हमारे चारों ओर का परिवेश है । पाश्चात्य तथा भारतीय साहित्य में पारिस्थितिकी से संबद्ध विभिन्न विधायी सृजनात्मक रचनाएँ प्रकाशित होने लगी। सन् 1960 से विश्व साहित्य में पारिस्थितिकी की चर्चा प्रारंभ हुई और हिन्दी में परिवेश की चर्चा आलोचक के रूप में सबसे पहले डॉ. रघुवंश ने की थी । भारतीय भाषाओं में मलयालम साहित्य में यह प्रवृत्ति ज़ोर पकडने लगी । पारिस्थितिकी के सन्दर्भ में मलयालम कविता का आकलन प्रस्तुत लेख का विषय है ।

हिन्दी में प्रयुक्त "पारिस्थितिकी' अंग्रेज़ी शब्द 'Ecology' का प्रतिशब्द है । यह ग्रीक शब्द 'Oikos' और 'Logs' के मेल से बना है । 'Oikos' का अर्थ है "घर' या आवास स्थान तथा 'Logs' का अर्थ है विज्ञान । यहाँ "घर' का तात्पर्य है पेडों और जीवजन्तुओं का आवास स्थान अथवा पर्यावरण । पारिस्थितिकी में जीव और उसके वातावरण के बीच होनेवाले संबन्धों का अध्ययन किया जाता है । "पारिस्थितिकी' वह विज्ञान है जिसमें मनुष्य और परिवेश या पर्यावरण के अंतर्संबन्ध का अध्ययन किया जाता है । । 'Ecology' का कोशगत अर्थ है "The Scientific study of the interrelations between living organisms and their environment including both the physical and biotic factors; and emphasizing both interspecific and intraspecific relations."

 

प्रकृति-पुरुष संबन्ध का दर्शन भारतीय संस्कृति का आधार है । इस संबन्ध का सन्तुलन जब विचलित होता है तब हमें पारिस्थितिक आघात का अनुभव होता है । तभी तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकूरजी ने गाया था ""तरूर मर्मर साथे: मानव मर्मर आत्मीयता' यानी वृक्षों की मर्मर ध्वनि के साथ मानव के मर्म का आत्मीय संबन्ध है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश जैसे पंचभूतों की असन्तुलित स्थिति मानव जीवन केलिए अभिशाप है । यजुर्वेद का उद्घोष' अंतरीक्षं मा हिंसी' अर्थात् वातावरण का विनाश मत कीजिए, आजकल बहुत ही प्रासंगिक है । प्रकृति (Nature), पर्यावरण (Environment) पारिस्थितिकी (Ecology) ये परस्पर संबद्ध शब्द हैं और उत्तरोत्तर कालानुसारी भी । हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस (World Environmental Day) के रूप में हम मनाते आ रहे हैं । आज से बयालीस साल पहले सन् 1973 में पहली बार World Environmental Day मनाया गया । सन् 1992 में अमेरिका में स्थापित संगठन का योगदान Association for the study of Literature and Environment पारिस्थितिक चिन्तन के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है । सन् 2011 में छ.ग़्.क.घ्. (United Nations Environment Program) यानी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने जब भारत का चयन किया तबसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में पारिस्थितिकी की चर्चा ज़ोर पकड़ने लगी ।

 

पारिस्थितिक दर्शन के समग्र विश्लेषण के लिए इसकी शाखाओं और उपशाखाओं पर ध्यान देना समीचीन होगा ।

 

"माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या' का उद्घोष करनेवाला वैदिक पृथ्वी सूक्त भारतीय वाङमय में प्राचीनकाल से प्रकृति के प्रति श्रद्धाभाव प्रमाणित करता है । आदिकाव्य "रामायण' के तीसरे काण्ड का नाम आदिकवि वाल्मीकि ने "आरण्यकाण्ड' दिया था । महाभारत में "वनपर्व' है । विश्वकवि कालिदास कृत मेघदूत, रघुवंशम्, कुमारसंभवम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि का फलक ही प्रकृति है । इस तरह प्राचीनकाल से प्रकृति साहित्य का अभिन्न अंग है ही । विश्व साहित्य में पारिस्थितिकी की चर्चा रेचल कार्सन (Rachel Carson) ने सन् 1962 में अपनी पुस्तक 'Silent Spring' यानी "मौन वसंत' में प्रारंभ की थी । उन्होंने इस कृति में डी.डी.टी के खिलाफ चेतावनी दी कि इसका छोटा सा कण भी भारी हानि पहुँचा सकता है । उनकी यह चेतावनी बाद में सत्य स्थापित हुआ । 'Man and Nature' शीर्षक पुस्तक में उल्लेख है कि प्रकृति में मनुष्य का हस्तक्षेप पारिस्थितिक संकट पैदा कर देगा ।

 

समकालीन मलयालम साहित्य की एक उल्लेखनीय कृति है सन् 2010 में रचित वी.टी जयदेवन की प्रलंब कविता "हरितरामायणम्' । प्रस्तुत कविता प्राचीन कथावस्तु की नवीनतम व्याख्या है । यह कृति सीता और श्रीराम के चरित्र को पारिस्थितिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। इक्यावन भागों में आबद्ध यह कविता प्रकृति के मनोरम दृश्यों से रामकथा के मार्मिक प्रसंगों को जन ह्मदय में अंकित करती है । जीवन के अंत में राम पहचानते हैं कि सरयू सीता ही है । ऐसी सीता की ओर लौटे बिना राम अन्यत्र कहाँ जा सकते हैं ? इस तरह प्रकृति-पुरुष संबन्ध की अनिवार्यता यह कविता उद्घोषित करती है । पी. कुञ्ञिरामन नायर, जी.शंकर कुरुप, वैलोप्पिल्ली श्रीधर मेनोन, इडश्शेरी गोविन्दन नायर, एन.वी. कृष्णवारियर, ओ.एन.वी. कुरुप, सुगत कुमारी, डी. विन्यचन्द्रन, कटम्मनिट्टा रामकृष्णन, सच्चिदानन्दन, अय्यप्पपणिक्कर, वी.एम. गिरिजा आदि कवियोंने पारिस्थितिकी से संबद्ध कविताओं की रचना की है । ओ.एन.वी. कुरुप की कविता "सूर्यगीतम्' टी. विन्यचन्द्रन की "जंगल (काटु), कटम्मनिट्टा की "शान्ता', सच्चिदानन्दन की "चावल' (नेल्लु), डॉ. के. आय्यप्पपणिक्कर की "जंगल कहाँ है बेटा' (काडेविटे मक्कले) जैसी कई कविताएँ उल्लेखनीय है।

ओ.एन. वी कुरुप ने धरती की मौत की संभावना देखकर "पृथ्वी के प्रति शोक गीत'(मलयालम में भूमिक्कोरु चरम गीतम्) लिखा था । कवि इटश्शेरी गोविन्दन नायर ने सन् 1954 में प्रकाशित "कुट्टिप्पुरम पालम' में यह आशंका प्रकट की थी कि निला नदी बाद में एक गंदी नाली बन जाएगी। मलयालम कवि डी. विनयचंद्रन के शब्दों में "कुट्टिप्पुरम पालम' सभ्यता के नए विपर्ययों, युग परिवर्तन तथा पारिस्थितिक विड़म्बनाओं से युक्त एक अनोखा पुल है।' (इडश्शेरीयुडे तिरञ्ञेडुत्ता कवितकल् -भूमिका)। पारिस्थितिकी देशकालातीत महत्त्वपूर्ण काव्य प्रवृत्ति है । पारिस्तिथिकीय चिन्तन समाजोपयोगी है क्योंकि जल, पृथ्वी, वायु, जैसे पंचतंत्तों की असंतुलित अवस्था के प्रति जनता को सतर्क बनाये रखने में कवियों की रचनाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । प्रदूषण व प्रकृति विध्वंस के विरुद्ध समाजोपयोगी कार्य करने की प्रेरणा कविता प्रदान करती है । यही नहीं भूमंडलीकरण के इस युग में पारिस्थितिकी का अवबोध अंतर्राष्ट्रीय महत्व रखता है ।

 

इमेरिटस प्रोफेसर

हिन्दी विभाग, कोच्चिन यूनिवर्सिटि ऑफ

साइन्स एण्ड टेकनोलॉजी

कोच्चि - 682 022

 

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