समकालीन हिन्दी कहानियों में वृद्ध जीवन – एक अध्ययन
डॉ.सुस्मिता.एस.वी
अपने समय की समस्याओं तथा घटनाओं को सफल रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत करने से ही सच्चा साहित्य अर्थगत हो जाता है। समाज में होनेवाले विसंगतियों को जनता के अंतरंग में पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम है कहानी। समकालीन कहानिकार मनुष्य जीवन के सभी पहलुओं को अपनी रचनाओं के द्वारा व्यक्त करता है जिनमें प्रमुख है वृद्धजनों का जीवन। आज तो सब अणु परिवार में रहना पसन्द करते हैं। इसलिए बूढे-बुजुर्ग आजकल उपेक्षित रह गए हैं। लेकिन अपनी अस्मिता केलिए ये लोग हमेशा प्रयत्न करते हैं। परिवार तथा समाज के द्वारा अपने ऊपर होनेवाले अत्याचारों के विरुद्ध वे सशक्त रूप में आवाज़ उठाते हैं।
एक मनुष्य के जीवन काल को चार अवस्थाओं में बाँट सकते हैं – शैशवावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था। वृद्ध जीवन के अतिरिक्त अन्य सभी अवस्था में वह अपना काम खुद कर सकता है और परिवार की भी देखभाल कर सकता है। इसलिए सभी लोग उन्हें भी पसन्द करते हैं और उनका आदर भी करते हैं। लेकिन वृद्धावस्था में पहुंचते ही मनुष्य को दूसरों की सहायता अनिवार्य होता है। ऐसी हालत में कुछ दिनों के बाद लोग उन्हें नफरत करते हैं। धीरे धीरे वह समाज से तथा परिवार से अन्य और अकेला बन जाता है। एनसाइक्लोपीडिया ओफ ब्रिटानिका के अनुसार Old Age also called senescence in human beings, the final stage of the normal life span. इस अवस्था को मनुष्य जीवन का आखिरी पायदान कह सकते हैं। वार्धक्य में आते ही शारिरिक तथा मानसिक क्षमताएं विकट होने लगती हैं। स्वाति तिवारी ने अपनी पुस्तक अकेले होते लोग में वृद्धावस्था के बारे में यों कहा है – "वृद्धावस्था को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में पारिभाषित किया गया है जिसे संपूर्ण शारिरिक क्षमताओं में उत्तरोत्तर कमी से आँका जाता है।" 1
आधुनिक समाज जो चीज़ अपने लिए अवश्यक है, उसे अपनाता है और बाकी को सिर्फ बेकार मानता है। संबन्धों के बीच भी आज ऐसी अवस्था हुई है। इसलिए घर पर व्यर्थ बैठे बुजुर्ग नई पीढ़ी केलिए एक भारी बोझ बन गया है। इस विचार को छोड़कर पुरानी पीढी के तरह सोचे बिना यह समस्या बन्द नहीं होती। यही नहीं वृद्धों को भी अपना दृष्टिकोण बदलना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि अपनी कमज़ोरियों को खुद समझने से ही उनकी समस्या में एक हद तक न्याय मिल सकता है।
समकालीन कहानिकारों ने विभिन्न पात्रों के ज़रिए अपनी कहानियों में वृद्धावस्था की समस्याओं को उभारने का प्रयास किया है। सुनील कौशिक ने अपनी कहानी पराजित में बाबू जगमोहन लाल का जीवन व्यक्त किया है जो पैर की पिंडलियों के दर्द से परेशान है। उनके दर्द को व्यक्त करते हुए लेखक कहते हैं – " पैर की पिंडलियों का दर्द बढ़ता ही जा रहा है और साँस बार-बार फूलने-सी लगती है। उसी प्रकार राजी सेठी की उतनी दूर कहानी में अम्मा घुटनों के दर्द से दु:खी है। घुटने संभालते कोहनी पर भार साधते इन्हें खींच निकालने का उपक्रम किया तो कमर कमान-सी अधबीच अटकी रह गई। कितना भी रोए पीटे................. उस मुद्रा से वापिस का लोच कहाँ से आएगा। हड्डियां पुरानी पट चुकी।"3 इन कहानियों में वृद्धावस्था की प्रमुख समस्या को व्यक्त किया है।
वृद्धावस्था की एक सशक्त समस्या है नींद की कमी। बहुत सी कारणों से यह कमी हो सकती है। वह तो रात-भर जागते रहते हैं। मानसिक और शारिरिक अस्वास्थ्य इसका कारण बन सकता है। ज्ञान रंजन की कहानी पिता के पिताजी रात भर जागते रहते हैं और कुछ न कुछ काम करते रहते हैं। कभी वह बिल्ली को भगाते हैं तो कभी हवा से गिरे आम तो लेने जाता है। कभी तो बिस्तर में पड़े ही करवटें करते हैं। कहानिकार का कहना है कि "पिता ने कई बार करवट बदली। फिर शायद चैन की उम्मीद में पाटी पर बैठ पंखा झुलने लगे हैं।" 4 निर्मल सिंह की 'प्यासी रेत' नामक कहानी की मौसी शारीरिक रूप से बहूत दुर्बल है। इसलिए वह हमेशा किसी न किसी को बुलाती रहती है। इस आदत से तंग कर बहू कहती है – "अम्मा क्या बात है ? हमेशा खड़खड़ करती रहती है। चुप भी रहा कर – सबको अपने अपने काम है – कहाँ तक बार-बार आएँगे तेरे पास। आरे, कोई खाली थोड़ी ही बैठा है।"5
खाने में नफरत होना या स्वाद नष्ट होना स्वाभाविक रूप से होता है। मुंह के स्वाद में परिवर्तन तथा दवाइयों के अधिक उपयोग से अक्सर ऐसा होता है। लेकिन उन्हें खाने की अधिक चाह होती है। कोलेस्ट्रोल, डायबेटिक, प्रेषर आदि बिमारियों के कारण स्वादिष्ठ भोजन उन केलिए निषिद्ध होता है। इस अवस्था में वे अधिक निराश हो जाते हैं। मृणाल पाण्डे की कहानी 'चिंदगादडे ' की ममा रोगग्रस्त है। कई सालों से वह बिस्तर पडी है और उसे किसी भी खाना अच्छा नहीं लगता। वह कहती है – "मूंह का स्वाद जाने कैसे खो गया है ?"6
आंखों की बिमारियों को व्यक्त करनेवाली कुछ कहानियाँ है जैसे – श्रीलाल शुक्ल की ' इस उम्र में ', राजी सेठ की ' उतनी दूर ', दिनेश पालीवाल की ' तकलीफ ' आदि कहानियां।
वृद्धावस्था में थोड़ी दूर चलना या कोई काम करना बहुत कठिन होता है। मदन मोहन की 'बूढा' नामक कहानी के बूढा बाप हमेशा पार्क में टहलने चलता है। उसे इस तरह जाने से बहुत खुशी मिलती है। लेकिन बूढ़े होने के कारण घूमने-फिरने में परेशानी होता है। ''छड़ी उठाई, और उसके सहारे चलने को हुआ तो पैर कांप गये। घुटनी में पीर उठी। हताश हो बैठ गया।''7 मृदुला गर्ग की 'बासफल', उदय प्रकाश की 'छप्पन तोले का करधन' आदि इस प्रकार की अन्य कहानियां हैं।
वृद्धावस्था में हमेशा यादाश खो जाता है। इसलिए एक बार कही बात को कई बार दुहराना पड़ता है। स्मरण शक्ति खोने के कारण किसी सवाल का जवाब देना भी उन केलिए कठिन होता है। इस उम्र में नामक कहानी में बूढा बाप एक टेम्पो से धक्का खाकर घायल हो जाता है। लेखक उसे अस्पताल ले जाकर पट्टी लगाता है। लेकिन कुछ हफ्तों बाद मुलाकात होती है तो बूढ़े सब कुछ भूल गया । वह इतना कहता है कि – ''नर्स बहुत अच्छी थी। उसने मुझे चाय पिलायी थी। लेखक सोचता है – यानी, इसे दुर्घटना, बेहोशी, पुलीस, इमर्जेसी, कुछ भी याद नहीं। याद है तो सिर्फ नर्स की।'' 8
इसके अलावा ऊर्मिला शिरीष के बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु, रूपलाल बेदिया की पीले पत्ते, जगदीश नारायण चौबे की दादी का कंबल, गोविन्द मिश्र की साधे आदि वृद्धावस्था की विविध समस्याओं को व्यक्त करनेवाले कहानियाँ हैं।
मनुष्य यह सोचता नहीं कि हरेक व्यक्ति बूढा बन जाता है और उन्हें विविध समस्याओं को भोगना पड़ता है। इस अवस्था में सभी शारिरिक विकारों पर काबू पाना आवश्यक है। आहार और व्यायाम में कुछ ध्यान दें तो, एक हद तक इन कमज़ोरियों को दूर कर सकता है। एक समय में पूरा भोजन लेने के बजाय दिन में कई बार थोड़ा-थोड़ा खाना खाये तो अच्छा ही होगा। उसे माँस, मछली तथा तली हुई वस्तुओं के बजाय फल, खरी सब्जियाँ, खनिजों युक्त आहार को भी खाना है। शरीर को तन्दुरुस्त रखने केलिए व्यायाम करना बहुत आवश्यक है। अपनी क्षमता और शारीरिक शक्ति के अनुसार विविध प्रकार के व्यायाम है जो रोगों को एक हद तक मुक्त करता है। आधुनिक पीढ़ी के लोगों को सिर्फ धन या अपना कामों में ध्यान देते वक्त कुछ समय इन वृद्धजनों की ओर भी मन लगाये तो ये उनकेलिए बहुत ही शांति तथा सांत्वना की बात होगी।
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