'भोगो – फेंको' की कुसंस्कृति पर नश्तर लगाने का आह्वान – ज्ञान प्रकाश विवेक की कहानियों के संदर्भ में
डॉ. सी. एम. योहन्नान
' भोगो – फेंको ' की कुसंस्कृति के बलवती होते उत्तराधुनिक युग में मनुष्य की गरिमा को बचाये रखने का संदेश देनेवाला कथाकार है ज्ञान प्रकाश विवेक । उनका जन्म 30 जनवरी, 1949 को हरियाणा में हुआ । 'अलग-अलग दिशाएँ ', ' जोसफ चला गया ', ' शहर गवाह है ', ' उसकी ज़मीन ', ' इक्कीस कहानियां' आदि इनके कहानी संग्रह हैं। ' शिकारगाह ' इनका नवीनतम संकलन है जिसका दूसरा संस्करण 2005 में निकला । इस में 'अर्थ', 'बर्फ', 'शिखर पुरुष', 'तमाशा', 'उजाड', 'अजनबीयत', 'रिफ्यूजी कैंप', 'अक्स', 'इमारतें' ,'हम सफर', 'आफिसर', 'क्षमा करना मां', 'इन-डोर गेम', 'बँधुआ', 'शिकारगाह' जैसे शीर्षकों में 15 कहानियाँ संकलित हैं । इसकी अधिकांश कहानियाँ सामाजिक विडंबनाओं एवं जटिल होते मानवीय संबंधों पर आधारित हैं। इस में एक ओर बाज़ारवादी तंत्र से संचालित समाज का कुरूप चेहरा है जो इतना क्रूर और निस्संग है कि दीन-हीनों की व्यथा-कथा को, दुख-दर्द को नज़र-अंदाज़ करता है तो दूसरी ओर आडंबर पूर्ण जीवन की तड़क-भड़क और धन की चाकाचौंध भी चित्रित है ।'अर्थ' और 'बर्फ' में उत्तराधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में सुविधा संपन्नों का गरीबों के प्रति उपेक्षा एवं बेरहमी का चित्रण हुआ है।
शिमला के रिज पर टहलते हुए लेखक एक कुली को देखते हैं जो पहलगांव के किसी देहात से आया है । वह दो दिनों से भूखा है । लोकगीत गाते हुए वह अपनी उदासी और भूख को पुचकार रहा था। शिमला में जो टूरिस्ट आते हैं उनकी संपन्नता और शान-शौकत एवं प्रकृति की खूबसूरत नज़ारों के बीच निहायत गरीबी की व्यथा-कथा का जीता-जागता दृश्य भी बीच-बीच में दिखाई देता है । हज़ार पत्ते के बदले दस रुपये पाने केलिए गरीब स्त्रियाँ कमर में बँधे कपडों में दरांती खोंसकर, मेंढक की तरह पेड़ों पर चढ़कर पत्ते तोड़ती हैं । इन पत्तों के पत्तल बनेंगे । कहानी का थोड़ा अंश द्रष्टव्य है-पत्तियाँ तोड़ती एक औरत ने बताया कि इस लड़के की माँ भी पत्ते तोड़ने आया करती थी । लेकिन एक दिन पत्ते तोड़ते हुए दरांती हाथ से छूट गयी । दरांती को लपकने की कोशिश में वह खुद भी नीचे जा गिरी। रीढ़ की हड्डी लचक गयी । अब खाट पर पड़ी है । मुरदार न जीने में है न मरने में । यह बच्चा इन जनानियों का हाथ बँटाता है । वह सब मिलकर उसे ढाई-तीन रुपये दे देती हैं । 1" निहायत गरीबी के बीच भारी संपन्नता का चित्रण भी कहानी में द्रष्टव्य है – डलहौज़ी अब तक पूरी तरह जाग गया । वे लोग भी जाग गये होंगे जो देर तक पीते रहे होंगे या फिर किसी खरीदे गये स्त्री जिस्म के साथ पूरी रात भेड़िया बनते रहे होंगे । सभी रेस्तराँ , हॉटल , पब , बार अपना कचरा और साडाँध पिछवाड़े की खाइयों में फेंककर सज-धजकर तैयार हो चुके होंगे । सैलानी कीमती पोशाकें पहनकर और जेबों में नोट ठूँसकर मालरोड पर खरीदानी के लिए निकल पड़े होंगे । खूबसूरत जवान और छरहरी लड़कियाँ नाजो अंदाज़ के साथ चोखलेट खा रही होंगी और इनकी माएँ ब्यूटी पार्लरों में ढलती उम्र से मुठभेड़ करती... डलहौज़ी में बहुत कुछ हो रहा होगा ।"2
'बर्फ' में सुविधासंपन्नों का गरीबों के प्रति बेरहमी का जो मार्मिक चित्रण किया गया है जिसे पढ़कर दिल द्रवित हो जाता है । पाँच साल की गरीब लड़की पड़ोसी के घर में बर्फ माँगने जाती है । लड़की के पिता पियक्कड़ था । बर्फ नहीं ला देती तो पिता की ओर से मार खाना पड़ता था । लड़की जब बर्फ माँगने पहुँची तब पड़ोस के लड़के शराब के नशे में थे । लड़कों में से एक ने उसे ज़ोर का थप्पड़ मारा और घसीटते हुए ड्योढ़ी तक ले गया । अप्रत्याशित मार खाकर लड़की डर के मारे ज़ोर से बिलखती रही । लड़के ने गरजते हुए कहा – "अब के इधर आई तो हड्डी-पसली एक कर दूंगा । उसके बालों को झटका दिया । गाली दीं , कुतिया ! सारा मूड खराब कर दिया ... भिक्खमंगी।"3
शराब के नशे को किरकिरा करनेवाली लड़की के प्रति क्रोध का आना अगर स्वाभाविक कहा जाय तो भी उसको थप्पड़ मारना, चोटी पकड़कर खींचना , कुतिया कहकर ड्योढ़ी तक घसीटना कितनी निंदनीय है । और उस लड़की का भी क्या कसूर है ? बर्फ न ला देती तो उसे मार खानी पड़ती । कहानी की घटनाएँ विक्टर ह्यूगो के ' ला मिजरेबिल ' का 'The poor has always the winter' संवाद की याद दिलाती है ।
' तमाशा' दिल्ली शहर को केंद्र में रखकर अवतरित कहानी है । दिल्ली अपने बाज़ारों और पॉश (posh) कांलोनियों पर इतराता है लेकिन पाइपलाइन के लीकेज पर नग्न अवस्था में नहाती स्त्रियां, पटरी पर सोते लोग, जेब कतरे, भिखमंगे, झोंपड़ियों की न खत्म होनेवाली कतार ये सब उस शहर का मवाद है। यह शहर दुर्घटनाओं, हत्याओं, आगजनी, आत्महत्याओं, फिरौतियों, बीमारियों – हर तरह के रक्तपात पर खामोश रहता है ।
पेट की खातिर कुछ भी करने को तैयार एक युवक का चित्रण इस में हुआ हे । उस के हाव-भाव, रूप- शक्ल को देखकर एक डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक उसे मेनीकुईन बना देते हैं । वह नौकरी केलिए कुछ भी करने को तैयार था । दिन भर उसे अपने चेहरे को काठ की तरह सख्त एवं शरीर को बिजली के खंभे जैसा रखना है । स्टोर में खरीद-फरोक्त केलिए आयी संपन्न घराने की सुन्दर सेक्सी लड़की ने इस ज़िन्दा मेनीकुइन को देखकर उसके गालों को छूने और चूमने की चेष्टा की तो एक क्षण केलिए उसकी दुर्बलता बाहर आ गयी । उसका होश खो बैठा । लड़की बोली कि "यू आर फैण्टेस्टिक मेनीकुइन सी यू ।" प्रत्युत्तर देते हुए युवक ने कहा "यू आर आल्सो वैरी – वैरी चार्मिंग गर्ल, नाइस मीटिंग । " उसका मालिक ताव खा गया । उसके कान उमेठते हुए कहा - "क्या कर रहा था ? क्या बदतमीदज़ी है ये ! हमने तुझे मेनिकुइन बनाया था, आदमी नहीं । तू आदमियों जैसी हरकतें करने लगा । तू हमारे काम का नहीं।"4
' उजाड़ ' में आज के वैश्वीकरण तथा उत्तराधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के चंगुल में फंसकर निरुपाय बन जानेवाले युवा पीढ़ी की ओर इशारा किया गया है । वासन कंपनी का पर्सणल मैंनेजर है । वह ईमानदारी से अपना काम करता है लेकिन मैनेजमैण्ड की नज़रों में वह कामयाब नहीं निकला तो कंपनी ने उसे बरखास्त कर दिया । मैनेजमेण्ड की नज़रों में गिरा व्यक्ति खराशजदा कुत्ते जैसी औकात लेकर रह जाता है, जिससे हर कोई वचता है ।' शिखर पुरुष' प्रेमी का प्रेमिका के प्रति बेवफाई के विषय पर आधारित कहानी है । प्रेमी (बनवारी लाल ) ने प्रेमिका (जानकी) को खिलौना समझकर उसका फायदा उठाया और चालाकी से उसे छोड़ भी दिया । ' मैं तुम्हारे विकास से नहीं , पतन से घबरा गयी हूँ । इस दप्तर का साम्राज्य मुबारक हो ।' फिर भी कहानी को पढ़ते हुए पता चलता है कि प्रेमिका अब भी अपने प्रेमी को भूलती नहीं, उसकी स्मृति में जीती है ।
'अजनबीयत' अकेलेपन की आदतवाले व्यक्ति की कहानी है । टी. वी. के सामने अकेले रहने की आदत है उसका । उसे लगता है कि दूरदर्शन में जो सुखी परिवार का चित्रण किया जाता है वह एकदम झूठ है । सिर्फ फरेब । पत्नी और बच्चों का सामना करने की अब उस में हिम्मत नहीं । उसे आश्चर्य होता है कि "ऐसा कौन-सा वाइरस फैला है कि सब एक दूसरे से बचने लगे हैं । यह एक तरह का प्लेग है जिसका किसी को पता नहीं, सब मज़े-मज़े में इस प्लेग को जी रहे हैं ।"5
' रिफ्यूजी कैंप ' मार्मिक कहानी है । इस में शरणार्थियों पर सिपाही रूपी नर-पिशाचों की नृशंसता का मार्मिक वर्णन हुआ है । यह कैंप गैरज़रूरी लोगों की बस्ती है । सब के नाम गुम हो गए । सब नंबर से जाना जाता है । हर कोई बीमार है । औरतें गठरियां, बुजुर्ग कंकाल और नौजवान बेचैन । आंख मिलाकर बात करने की मनाही है । सड़े हुए भोजन खिलाया जाता है। सेमुअल और बेल नामक दो युवकों ने विरोध किया कि कैंप अधिकारी भी वही खाना खाएं । इसका नतीजा यह निकला था कि कैंप के बीच उन दोनों को गोली मार दी गयी । रिप्यूजियों पर सिपाही कुछ भी कर सकता है । मारना-पीटना, ज़रा-सी गलती पर सख्त सजा देना मामूली बात है । " चहकती हुई लड़की सोफिया अब श्मशान जैसी लग रही है । कल शाम सार्जेन्ड सोफिया को जीप में डालकर ले गया । आज वही सार्जेन्ड सोफिया को उसके तंबू के सामने फेंक गया है । उसकी सलवार पर खून के धब्बे हैं, जमे हुए । कई लकीरें हैं खून की... । बेखौफ और बेशर्म लोग , इन्सानी रुद्रों को बूट के नीचे रौन्दते हैं। " 6
'इमारतें' शीर्षक कहानी प्रतीकात्मक अर्थ रखती है । यह विचार-प्रधान है और दार्शनिक भी । गगनचुंबी इमारतें विकास व प्रगति के नाम पर अग्रसर घमंडी तथाकथित सभ्यता प्राप्त महानगरीय जीवन का प्रतीक है, जहाँ कारपरेटेड वर्ल्ड...वुमन ! वाइन! वेल्थ है, असीस धन की चकाचौंध है , मनुष्य अंधा जीवन जी रहा है । बयान बाज़ियाँ ज़ारी है-यकीनन यह सब आसेब की छाया है... परकाया प्रवेश है ... खुदा खैर करे ! भगवान लाज रखे . .. 7
दूसरी तरफ सिंगल स्टोरी इमारतें उस सभ्य सामाजिक जीवन का प्रतीक है जहाँ जीवन था, प्रेम, भाईचारा , करुणा, दया, ममता आदि विद्यमान रहा । सिंगल स्टोरी मकान स्वस्थ एवं सभ्य सामाजिक जीवन को प्रश्रय देती है । चुस्त-दुरुस्त भाषा में रचित यह कहानी पाठकों को एक ही बैठक में पूरा करने को बाध्य कर देती है । गहन एवं गंभीर विषय को एक मंजिल और बहु मंजिले मकान के आपसी संवाद के माध्यम से प्रसतुत होने के कारण कहानी की पठनीयता एवं प्रभाव बढ़ गया है ।
'हम सफर' दार्शनिक भाव- भूमि पर अवतरित वैचारिक कहानी है। ट्रैन के अंदर हंसी-मज़ाक में या गुमसुम होकर अपनी ही दुनिया में सुरक्षित सफर करनेवाले यात्रियों के बीच ग़ाढी दोस्ती बनेगी या शायद नहीं बनेगी लेकिन चलती रेल की पायदान पर बिलकुल असुरक्षित अवस्था में सफर करनेवालों के बीच गाढ़ी दोस्ती बन जाती है कि विदायी लेते समय एक दूसरे के प्रति बेहद भाव विह्वल हो जाते हैं और कहते हैं " ट्रेन के अंदर हम होते तो शायद एक दूसरे से बोलते भी नहीं.....पायदान दोस्ती करने की अच्छी जगह है ।"8 तेज़ रफ्तार चलनेवाली ट्रेन के पायदान में खडे होकर दिसंबर की ठिठुरती रात में दो अपरिचित व्यक्तियों में से एक आदमी अपने बैग से दस्ताने निकालकर दूसरे आदमी को देता है जो भयंकर ठँड में ठिठुर रहा था । स्वयं खतरा मोल लेकर अपने हम- सफर की जान बचाने का उसका प्रयास श्लाघनीय है । 'अफिसर', संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में से है । दहरादून की घाटी में आइ.ए.एस की ट्रेनिंग में गए नए रिक्रूट देखते हैं कि उनका बॉस किसी से नहीं मिलते हैं । उत्सुकतावश वे एक दिन डी.एम. के चेंबर में प्रवेश करते हैं । उसके अधजले असुंदर चेहरे को देखकर वे चकित एवं व्याकुल हो जाते हैं । वे लोगों से क्यों नहीं मिलते उसका रहस्य खुल जाता है । दोनों में आत्मीयता की बातचीत होती है । बाँस अपने जीवन में घटी दुर्घटना उन्हें बता देते हैं । वे एक दिन अपनी पत्नी और बेटी के साथ शादी में गए थे । पंडाल में आग लग गयी । बेटी पंडाल में पड़ गयी । वे जलती आग में घुस गए और किसी-न-किसी तरह उसे बचा के बाहर आ गये तब तक पत्नी पंडाल में जल मरी । उसकी झुलस गयी लाश मिल गयी । बेटी का मुँह पूर्णत: जल गया था । प्लास्टिक सर्जरी से कोई फायदा नहीं हुआ । बॉस ने प्लास्टिक सर्जरी इसलिए नहीं की कि उनके चेहरे को देखकर बेटी को थोड़ी सी राहत मिल जाय ।
कहानी की चरित्र-सृष्टि आत्यन्त मार्मिक एवं गंभीर है । बॉस और उनकी बेटी दोनों अपने जीवन में अभिशाप्तता को भुगत रहे हैं । उनका संग आफिस के बाकी लोग नहीं चाहते हैं लेकिन यह नया रिक्रूट डी.एम से मिलते और उनके साथ चाय पीने उनके घर पर जाने और उनकी अभिशाप्तता से उबरने के लिए उपाय भी बताते हैं । आफिसर (बॉस) और उनकी बेटी अगर ऐसी अवस्था में न होते तो बॉस का संग और उनकी बेटी का कुशल-क्षेम पूछने के लिए भीड़ लग गयी होती । लेकिन सहकर्मी लोग उनके घर पर न सही उनके चेंबर में भी उनसे मिलना पसंद नहीं करते ।
उत्तराधुनिक युग में 'प्रसाद' की सी पात्र-सृष्टि ज्ञान प्रकाश ने की है । आफिसर शीर्षक कहानी का बॉस और नया रिक्रूट 'छोटा जादूगर' और 'पुरस्कार' की मधूलिका जैसे चरित्रों की हमें याद दिलाती है ।
'क्षमा करना माँ' में लेखक ने एक दार्शनिक प्रश्न को उठाया है । प्रश्न है कि क्या जीवन से बाहर हुआ मनुष्य , परिदृश्य से शायद बाहर हो जाता हो , लेकिन क्या स्मृतियों से भी बाहर हो जाती हैं ? वह मरता है तो क्या स्मृतियों में ज़िन्दा नहीं रहता ? लेखक को लगता है कि उनकी माँ, अपनी मृत्यु के बाद न दिखाई देनेवाले चित्र की भाँति उनके मन के खामोश जगत में छाया बनकर पसर गयी है। लेखक अपनी व्यस्तता में माँ को भूलना चाहता है लेकिन वह भूलती नहीं ।
'इन-डोर गेम' और 'शिकारगाह' आर्थिक स्वार्थ के कारण परिवार के टूटकर ढह जाने की समस्या पर केन्द्रित कहानियां हैं। 'इन-डोर गेम ' में एक संपन्न परिवार के चार भाइयों में सबसे छोटे को छोडकर बाकी तीनों के आपसी संबन्ध छल-कपट एवं पाखंड का था। एक दूसरे के पैरों पर कुलहाडी मारने केलिए ताक पर बैठते हैं लेकिन घाव करने के बाद भी पता नहीं चलता है कि कुल्हाडी किसने मारी ।
चारों भाइयों में सबसे छोटा दीपक अपने भाइयों की करतूतों से दुखी था । वह बायरन, शैली, एलियट जैसे कवियों की कविताएं पढ़ता, फिर रोता । इसके भाई लोग चाहते थे कि दीपक भी उनकी तरह दौड़ने लगे जैसे नए नए पूंजीपति दूसरों का कंधा छीलते और रगड़ते हुए दौड़ते हैं। उनके भाई लोग गणित की खेतियां करते थे। स्वार्थों के चाकू उगाते, साजिशों की तलवायों से फसल काटते थे । आखिर दीपक टी.बी. से ग्रस्त हो गया तो सारे भाई उसे उस तरह घेरकर खड़े हो गए जैसे कोई सख्त मुजारिम हो। उसके मर जाने से पहले उनके भाई लोग चाहते थे कि वह अपने शेयरों की ट्रांसफर डीड पर साइन कर दें। साइन करने के अगले दिन दीपक की मृत्यु हो जाती है।
'शिकार गाह' शीर्षक कहानी में पिता के सीने पर रिवाल्वर तानकर रुपये हडपनेवाले बेटों की कहानी है। रिवालवर की धमकी पर रुपए हडपने पर रुपए हड़पने में बडा विजयी हुआ तो दूसरे ने बंदूक पिता की कनपटी पर तानकर छह लाख की फिरौती मांगी तो पिता ने इनकर कर दिया । गोली चल गयी और पिता वहीं ढेर हो गया। एफ. आई. आर दर्ज करते वक्त दारोगा बोला था कि अगर वे दो लाख उन्हें दे दें तो वह हत्या को आत्महत्या में बदल देगा। लेकिन बेटों ने नहीं माना । आखिर छोटे भाई को उम्र कैद प्राप्त होती है । बडा बेटा जी.के. नाम से जाना जाता है । वह अपने बिज़नेस के माध्यम से छोटे बेटे के कस्टमरों को अपने कस्टमर बनाने में सफल हो जाता है। छोटे का बिज़नेस घाटे पर आ जाता है और सब कुछ नष्ट हो जाता है। आखिर ऐसा वक्त भी आ जाता है कि छोटा भाई बड़े के पास पांच सौ रुपये तक उधार मांगता है । लेकिन बडे ने नहीं दिया । उसे खूब मारा और वह बेहोश होकर गिर पड़ा। बेहोशी टूटी तो वह पागल बन गया था । जी. के. को अब पश्चात्ताप होता है। उसके पिता गोली खाकर मर गया । मां गम खाकर मर गयी । एक भाई उम्र कैद काट रहा है और सब से छोटा पागल । जी. के. ने लाखों करोडों कमाया है लेकिन एक हारा हुआ इंसान, जिसके पास खुशी का एक तिनका भी नहीं था ।
पारिवारिक टूटन के कारण घर से भाग निकलने को मज़बूर लावारिस अनाथ बच्चों की दीन-हीन दशा तथा उन बच्चों से अनुचित लाभ उठानेवाले समाज की हृदयहीनता का नग्न चित्रण करनेवाली कहानी है 'बंधुआ' । शराबी बाप के मार से तंग आकर और मां की हैजा से मृत्यु हो जाने के करण घर से भाग निकलनेवाले जब्बर नामक तेरह साल के लड़के का हृदय विदारक वर्णन इस में हुआ है । भूखा- प्यासा जब्बर गांव –गांव भटकता – फिरता है। भूख मिटाने के प्रयास में चोरी में पकड़ा गया तो गांववालों ने उसे खूब मारा । दोपहर से रात तक कहीं पड़ा रहा । बेहोशी टूटी तो उसे घर की याद आयी - ''मां थी तो कितना ध्यान रखती थी लेकिन खूब फटकारती भी थी । खूब नेह देती । मां को हैजा हुआ, अर मर गी । अर बाप ! एक नंबर का शराबी ! शराब पी के राछस हो जाता । खूब मारता । एक दिन मार-मार के देही तोड़ दी । भगा दिया घर से । अपने को कौन – से सुख मिल रे थे ।''9 जब्बर मुफ्त में किसी का कुछ खाता नहीं । एक कप चाय और दो रोटी के एवज़ पर गांववाले उस लावारिस का देह तुड़वा देते । उसके वज़न से दुगुना बोझ उससे लदवानेवाले नर-पिशाचों का क्या कहना !
जब्बर पाठकों के मन को झकझोरता है । ऐसे कितने जब्बर होंगे हमारे देश में । लावारिस थैले की भांति उधर से इधर और इधर से उधर ठोखरें खाने को मज़बूर अनाथ बालकों की दुर्दशा के प्रति समाज को सचेत कराने का प्रयास लेखक ने किया है ।
'शिकारगाह' की अधिकांश कहानियां दार्शनिक एवं वैचारिक स्तर पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। विषय वस्तु की दृष्टि से 'अर्थ', 'तमाशा ','उजाड','रिफ्यूजीकैंप ','इमारतें','हमसफर','आफिसर' और 'बंधुआ' समकालीन समय की श्रेष्ठ कहानियां मानी जा सकती हैं । 'हम सफर' और 'आफिसर' की पात्र-सृष्टि हमें प्रसाद के चरितत्रांकन की याद दिलाती हैं । ये कहानियां सामाजिक विडंबनाओं, जटिल होते मानवीय संबंधों और उत्तराघुनिक वैश्वीकृत समाज के कुरूप चेहरों पर नश्तर लगाने या आवश्यक मरम्मत करने का आहावान करती हैं।
डॉ. सी.एम योहन्नान
पूर्व रीडर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग ,
मार इवानियोस क़ॉलेज, तिरुवनंतपुरम ।
निवास: 'चिरक्कल',टी. सी 10/1384 (1)जी.एन. 28ए
गांधीजी नगर, नालांचिरा पी. ओ, तिरुवनन्तपुरम-695 015
केरल
शिकारगाह, पृ. 14
वही, पृ. 14
वही, पृ. 27
वही, पृ. 43
वही, पृ. 65
वही, पृ. 76
वही, पृ. 88
वही, पृ. 100
वही, पृ. 137
केरलाञ्चल
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संपादक
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